Swami Avimukteshwarananda: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को लेकर देश में चल रही बहस के बीच शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती महाराज ने पहली बार इस मुद्दे पर सार्वजनिक बयान दिया है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि यह शब्द संविधान का मूल हिस्सा नहीं था, और इसकी मौजूदगी भारतीय संविधान की मूल प्रकृति से मेल नहीं खाती।
“धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान में मूल रूप से नहीं था”- शंकराचार्य
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने अपने बयान में कहा,“धर्मनिरपेक्ष शब्द मूल संविधान में था ही नहीं। इसे आपातकाल के दौरान जोड़ा गया। धर्म का अर्थ होता है सही और गलत में अंतर करना, सही को अपनाना और गलत को अस्वीकार करना। लेकिन ‘धर्मनिरपेक्षता’ का अर्थ ही यह बनता है कि हमें सही या गलत से कोई लेना-देना नहीं है, जो किसी भी व्यक्ति या समाज के जीवन में संभव ही नहीं है।”
उन्होंने जोर देकर कहा कि यह शब्द संविधान में जोड़े जाने के बाद से विवादों का कारण बनता रहा है, क्योंकि यह भारतीय परंपराओं और सोच के अनुरूप नहीं है।
‘शब्दों को दोबारा करें विचार’ – आरएसएस महासचिव
इससे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने भी संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को दोबारा विचार करने की बात कही थी। उन्होंने सुझाव दिया था कि इन दोनों शब्दों को संविधान में बिना व्यापक बहस के जोड़ा गया था, और अब समय आ गया है कि देश में खुली चर्चा हो कि इन्हें प्रस्तावना में बनाए रखा जाए या नहीं।
“आपातकाल में बिना बहस जोड़े गए थे शब्द” — होसबोले
होसबोले ने अपने बयान में कहा था, कि “संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ जैसे शब्द 1976 में 42वें संशोधन के माध्यम से जोड़े गए। यह संशोधन आपातकाल के दौरान हुआ था, जब विपक्ष के बड़े नेता जेल में थे। संसद में इस पर कोई खुली बहस नहीं हुई।”
उन्होंने यह भी कहा कि संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने खुद भी कहा था कि संविधान को समय-समय पर बदला जा सकता है, लेकिन यह बदलाव किसी सरकार के राजनीतिक हितों के लिए नहीं होना चाहिए।
विपक्ष ने किया विरोध
दत्तात्रेय होसबोले के इस बयान का कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने तीखा विरोध किया है। विपक्ष का कहना है कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ भारतीय संविधान की आधारभूत भावना है, जिसे छेड़ने का कोई औचित्य नहीं है।
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