Maharashtra News: भारत का सैनिक जब सीमा पर तैनात होता है, तब उसकी नजर में न कोई धर्म होता है, न जात-पात। उसके लिए सिर्फ राष्ट्र सर्वोपरि होता है। लेकिन सोचिए, कितना दुखद है कि एक ऐसा ही सैनिक, जिसने कारगिल युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ मोर्चा संभाला था, आज अपने ही देश में नागरिकता साबित करने के लिए मजबूर हो गया। पुणे के चंदन नगर इलाके में रहने वाले हकीमुद्दीन शेख, जिन्होंने 16 साल तक भारतीय सेना में सेवा दी, को 26 जुलाई की रात एक भीड़ ने घेर लिया और उनसे पूछा “क्या आप भारतीय हैं? सबूत दिखाइए!” ये वही मूल्य हैं जिनकी रक्षा के लिए एक फौजी अपनी जान दांव पर लगाता है , और उन्हीं मूल्यों पर आज सवाल उठाए जा रहे हैं।
क्या एक फौजी की वफादारी धर्म देखकर आंकी जाएगी?
1984 में सेना की 269वीं इंजीनियर रेजिमेंट से अपने सैन्य जीवन की शुरुआत करने वाले हकीमुद्दीन ने 2000 में सेवा से निवृत्ति ली। उन्होंने कारगिल जैसे संघर्षों में देश के लिए अपनी जान जोखिम में डाली। 2013 में वे अपने गांव प्रतापगढ़ लौटे, लेकिन उनका परिवार अब भी पुणे में रहता है। देश की सेवा करने वाले इस सच्चे सिपाही को आज इसलिए संदेह की नजरों से देखा जा रहा है क्योंकि वह मुसलमान है? क्या अब देशभक्ति की पहचान भी धर्म से तय होगी?
सवालों में पुलिस की भूमिका, भरोसे पर गहरा आघात
हकीमुद्दीन का आरोप है कि जब उनके घर के बाहर भीड़ जमा हुई, तब वहां स्थानीय पुलिस भी मौजूद थी, मगर उसने हालात संभालने की जगह चुप्पी साध ली। इसके उलट, डीसीपी सोमय मुंडे ने दावा किया कि पुलिस को इलाके में कुछ संदिग्ध प्रवासियों की जानकारी मिली थी और वे सिर्फ जांच करने पहुंचे थे। उन्होंने कहा कि पुलिस अकेले गई थी और उनके पास वीडियो रिकॉर्डिंग भी है। पर सवाल ये है कि अगर एक युद्ध के नायक को इसी तरह अपमानित किया जाएगा, तो फिर आम नागरिक का क्या हाल होगा?
जब वर्दी के पीछे धर्म देखा जाए, तो न्याय कहां मिलेगा?
यह घटना इस सच्चाई को उजागर करती है कि कैसे धर्म और राजनीति की खाई अब इतनी गहरी हो चुकी है कि एक मुस्लिम सैनिक तक उस जहर से अछूता नहीं रहा। यह घटना सिर्फ हकीमुद्दीन का नहीं, बल्कि पूरी भारतीय सेना के सम्मान का अपमान है — एक ऐसी संस्था जो धर्म, जाति और पहचान से ऊपर उठकर देश की सेवा करती है। अगर अब सैनिक भी धार्मिक पहचान के आधार पर जांचे जाने लगें, तो यह भारत के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर एक बेहद गंभीर चोट है।
यह घटना न केवल हकीमुद्दीन और उनके परिवार के लिए गहरी मानसिक चोट है, बल्कि पूरे समाज के लिए एक कड़वा आईना है। सवाल वही है: क्या वाकई हम हर भारतीय को एक समान सम्मान देते हैं?
हमारी इंटर्न सुनिधि सिंह द्वारा लिखित
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